तुम्हारे हुस्न के बॉम्बे बाजार में फंसकर,
इश्क के पदम कुंड मे डूब जाता है,
दिल धड़कता था कभी एस एन कालेज सा अब यादों का नेहरू स्कूल बन जाता है
तुम लगती हो जैसे कचोरी सिनेमा चौक की,
ट्रैफिक जाम की रेवड़ी सा मुंह हुआ जाता है
तेरी सूरत के स्वच्छ अभियान को देखकर,
मेरा मन भी जसवाड़ी रोड सा मचल जाता है
चहकती हो तुम नवचंडी मेले की शाम सी,
मेरा प्यार यहाँ होटल मधुबन सा हुआ जाता है
तेरी पतली कमर है जैसे गलियाँ सराफा की,
उस पर मेरा दिल मंडीगेट के जाम सा रुक जाता है
बदन है खूबसूरत तुम्हारा आनंद नगर रोड़ सा,
और ये आशिक टैगोर पार्क में टहलने जाता है।
लेख़क अज्ञात खण्डवी